लुच्चे कामी आदि शंकराचार्य
मित्रों सभी जानते हैं कि आदि शंकराचार्य का मंडन मिश्र की पत्नी
से शास्त्रार्थ हुआ था, जिसमें वे पराजित हो गये थे क्यूंकि मिश्रजी
पत्नी ने 'काम' विषय पर सवाल पूछ लिये थे | जाहिर था सर्वज्ञ
शिव के अवतार आदि शंकराचार्य को इसका ज्ञान था, पर अपने
ब्रह्मचर्य के कारण व्रत के कारण इसका उत्तर नही दिया | पर वास्तव
में वो मौज उड़ाना चाहते थे, इसलिए मिश्र की पत्नी से एक महीने का
समय लेकर काम कला की प्रैक्टिस करने के लिये एक मृत राजा के
शरीर में घुसकर उनकी बीवियों संग जमके मौज उड़ाई | सार्री बातो
के 'शंकर दिग्विजय' जो की आदि शंकराचार्य की प्रमाणिक जीवनी
है उसका नवा और दसवा सर्ग पढ़ा जा सका | फिलहाल शंकारचार्य नेराजा के शरीर में घुस कर कैसी मौज उड़ाई इसका अनुमान १०वें
सर्ग इन श्लोको लगता है। चाँदनी के समान चमकने वाले स्फटिकशिला पर मनोहर तकिया वाले घर मेँ, राजा शरीर धारी शंकराचार्य सुन्दरी स्त्रियोँ के साथ द्यूतक्रीड़ा करता था, और एक-दूसरे के जीत लेने पर अधरदान, गोद मेँ बैठाना, बड़े-बड़े कमलोँ से मारना तथा विपरीत रति की शर्त रखता था।
स्त्रियोँ के अधरसुधा का स्पर्श होने के कारण रूचिकर, मुँह की वायु का संसर्ग हो जाने के कारण अत्यन्त सुगन्धित, प्रियतमा के हाथोँ लाये गये अत्यन्त मनोहर, मद उत्पन्न करने वाले, चन्द्रमा की किरणोँ के पड़ने कारण चमकने वाले मद्य को वह राजा शरीर धारी शंकराचार्य स्वंय पीता था और प्रियतमाओँ को पिलाता था ।
जिनके मुख पर कुछ पसीना आ गया था, ऐसी शराब के नशे मेँ अस्फुट अक्षर बोलने वाली स्त्रियोँ की रोमांच तथा सीत्कारयुक्त मनोहर ध्वनि को सुनकर कमल के समान सुगन्धित काम को प्रकट करने वाले अर्द्धविकसित तथा थोड़ी थोड़ी लज्जा से युक्त नेत्रोँ वाली तथा चञ्चल बालोँ वाली पत्नियोँ के मुख का चुम्बन करके राजा शरीर धारी शंकराचार्य धन्य हो गया।जिसमेँ जंघायेँ खुली हुई थी, ओँष्ठ दन्तक्षत के कारण घायल हो गये थे, स्तन पीड़ित हो गये थे, सुरतकालीन शब्द से युक्त, उत्साहपूर्वक तथा मणिरचित करधनी के शब्दोँ से युक्त, राजा के द्वारा की जाने वाली सुरतक्रीड़ा मेँ गात्र नाच रहे थे और सुख चारो ओर फैल रहा था ।कामकला के तत्त्व को जानने वाले तथा मनोहर चेष्टाओँ को करने वाले उस राजा शरीर धारी शंकराचार्य की इन्द्रियाँ सभी विषयोँ के भोग मेँ लगी हुई थी । उत्तम स्त्रियोँ के द्वारा सेवित राजा शरीर धारी शंकराचार्य उनके स्तन रूपी गुरू की सेवा करने के कारण अत्यन्त प्रसन्न था और उसने रतिक्रीड़ा रूपी ब्रह्मानन्द का निर्बाध रूप से अनुभव किया
यह काहानी शंकराचार्य की जीवनचरित्र दिग्विजयके आधार पर लिखित, लेखक-उमादत्त शर्मा, द्वादश परिच्छेद, १३५-१४८ पृष्ठ
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